एक सोशल मीडिया पोस्ट, दो दिन का वक्त और सियासत में भूचाल—लोकनीति-CSDS के सह-निदेशक संजय कुमार की X (ट्विटर) पोस्ट ने महाराष्ट्र की राजनीति में यही किया। 17 अगस्त 2025 को उन्होंने 2024 के लोकसभा और 2024 विधानसभा चुनावों के बीच कुछ विधानसभा क्षेत्रों में मतदाताओं की संख्या में "असामान्य उछाल-गिरावट" का दावा किया। पोस्ट में कहा गया कि नासिक वेस्ट में करीब 47.38% और हिंगणा में 43.08% पंजीकृत मतदाता बढ़े, जबकि रामटेक और देवळाली में लगभग 40% की गिरावट आई। आंकड़े दिखते ही कांग्रेस नेताओं—खासकर राहुल गांधी—ने इन्हें 'वोट चोरी' के आरोपों के समर्थन में उद्धृत करना शुरू कर दिया।
टाइमिंग ने कहानी को और तगड़ा बनाया। उसी दिन मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में 'वोट हेराफेरी' के आरोपों को खारिज किया था, हालांकि किसी नेता का नाम नहीं लिया। ऐसे में संजय कुमार की पोस्ट विपक्ष के लिए हथियार जैसी दिखी—और सत्ता पक्ष के लिए निशाना। पोस्ट 40 घंटे तक X पर बनी रही और 34 हजार से ज्यादा बार देखी गई।
दो दिन बाद सुर बदला। 19 अगस्त को संजय कुमार ने सार्वजनिक माफी मांगते हुए पोस्ट डिलीट कर दी। उनका शब्दश: बयान था—"I sincerely apologise for the tweets posted regarding Maharashtra elections. Error occurred while comparing data of 2024 LS and 2024 AS. The data in row was misread by our Data team. The tweet has since been removed. I had no intention of dispersing any form of misinformation." यानी तुलना के दौरान रो डेटा पढ़ने में टीम से गलती हो गई और गलत पोस्ट हो गई।
इसके बाद BJP ने इस गलती को महज़ तकनीकी त्रुटि नहीं, बल्कि 'कन्फर्मेशन बायस' का नतीजा बताया। पार्टी के IT सेल प्रमुख अमित मालवीय ने राहुल गांधी से माफी की मांग की। प्रवक्ता गौरव भाटिया ने आरोप लगाया कि कांग्रेस ने चुनावी प्रक्रिया को बदनाम करने के लिए गलत आंकड़ों का प्रचार किया और CSDS को 'झूठ की फैक्ट्री' तक कहा। दूसरी ओर, कांग्रेस के प्रवक्ता पवन खेड़ा ने इसे BJP की बौखलाहट बताया और दोहराया कि 'वोट चोरी' के आरोप सिर्फ एक पोस्ट पर आधारित नहीं हैं।
मामला यहीं नहीं रुका। सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICSSR)—जो CSDS को वित्त पोषण करती है—ने संस्थान को कारण बताओ नोटिस भेज दिया, यानी डेटा की गड़बड़ी और प्रक्रियात्मक चूक पर औपचारिक जवाब मांगा गया है। चुनाव आयोग ने भी संजय कुमार की माफी का संज्ञान लिया और कहा कि कई विपक्षी नेताओं ने उन्हीं के आंकड़ों को आधार बनाकर आयोग पर सवाल उठाए थे।
यह विवाद दो बड़े सवालों की तरफ इशारा करता है—पहला, चुनावी डेटा जैसे संवेदनशील विषय पर शोध संस्थान किस प्रक्रिया से निष्कर्ष तक पहुंचते हैं; दूसरा, राजनीतिक बयानबाज़ी में सोशल मीडिया के 'फर्स्ट इम्प्रेशन' का वजन कितना होता है। संजय कुमार की स्वीकारोक्ति से यह स्पष्ट है कि स्रोत डेटा/शीट स्तर पर पंक्ति-पढ़ने (रो-रीडिंग) की गलती हुई। लेकिन जब इसी गलती को बड़े दावों की भाषा में पेश किया जाता है तो इसका असर सिर्फ एक पोस्ट तक सीमित नहीं रहता—यह सार्वजनिक भरोसे को हिलाता है।
आम तौर पर लोकसभा और विधानसभा चुनावों के बीच मतदाता सूची में बदलाव होना असामान्य नहीं है—नई उम्र के मतदाता जुड़ते हैं, मृत्यु/डुप्लीकेट हटते हैं, स्थानांतरण और सुधार होते हैं। लेकिन 40–47% जैसे भारी उतार-चढ़ाव संकेत देते हैं कि या तो डेटा की यूनिट/सीमा गलत ली गई (जैसे किसी सेक्शन/वार्ड को संपूर्ण मतदाता सूची समझ लेना), या फिर अलग-अलग समय की सूची/रोल के संस्करणों की तुलना में तकनीकी त्रुटि हुई। जिस तरह संजय कुमार ने 'रो मिसरीड' कहा, वह बताता है कि शीट में कॉलम/पंक्ति की असंगत मैपिंग से निष्कर्ष उलट गए।
सवाल यह भी है कि ऐसी पोस्ट बाहर जाने से पहले शोध संस्थान के भीतर कौन-कौन सी फिल्टरिंग होती है। मजबूत प्रक्रिया में आम तौर पर ये कदम शामिल होते हैं—कच्चे डेटा का दोहरी जांच, कोड/कैल्कुलेशन की पीयर-रिव्यू, मेटाडेटा का स्पष्ट ब्योरा (डेटा किस तारीख का है, यूनिट क्या है, सीमाएं क्या हैं), और सार्वजनिक रिलीज से पहले "सेंस-चेक"—यानी परिणाम सामान्य अनुभव/भौतिक वास्तविकता से मेल खाते हैं या नहीं। अगर किसी सीट पर मतदाता एक साल में आधे के आसपास घट-बढ़ रहे हों, तो यह 'रेड फ्लैग' होता जिसे रोककर दुबारा जाँचना चाहिए था।
राजनीतिक स्तर पर विपक्ष ने इसे चुनाव आयोग को कठघरे में खड़ा करने के मौके की तरह देखा। सत्ता पक्ष ने पलट कर कहा कि यह एक तैयार नैरेटिव का हिस्सा है—पहले आरोप तय, बाद में आंकड़े ढूंढ़ो। सच बीच में कहीं है—डेटा की गलती हुई, स्वीकार भी हुई; लेकिन इससे चुनावी प्रक्रियाओं को लेकर फैला अविश्वास भी दिखा जो सोशल मीडिया पर मिनटों में कई गुना बढ़ जाता है।
ICSSR का शो-कॉज़ नोटिस संस्थागत जवाबदेही की तरफ कदम है। इसमें आम तौर पर तीन चीजें माँगी जाती हैं—गलती कैसे हुई, सुधारात्मक कदम क्या होंगे, और भविष्य में पुनरावृत्ति रोकने के लिए SOP क्या होगा। अगर जवाब संतोषजनक न हो, तो फंडिंग की समीक्षा, आंतरिक ऑडिट या बाहरी समीक्षा जैसे कदम उठ सकते हैं। शोध जगत के लिए यह चेतावनी है कि सार्वजनिक संवाद में आने वाला हर आंकड़ा सिर्फ अकादमिक नहीं, राजनीतिक असर भी पैदा करता है।
चुनाव आयोग के लिए यह प्रकरण दोहरी चुनौती है—पहली, गलत दावों का त्वरित प्रतिवाद; दूसरी, पारदर्शिता बढ़ाकर भरोसा मजबूत करना। आयोग ने बीते वर्षों में वोटर हेल्पलाइन, मतदाता सूची के ऑनलाइन अपडेशन और SSR (समरी रिवीजन) जैसी प्रक्रियाएँ डिजिटल की हैं। लेकिन जब हाई-वॉल्यूम गलत सूचना तेज़ी से फैलती है, तो रियल-टाइम डेटा स्पष्टीकरण, सार्वजनिक डैशबोर्ड और समय-समय पर तकनीकी ब्रीफिंग जैसे टूल और आक्रामक होने चाहिए।
मीडिया और राजनीतिक दलों की भी जिम्मेदारी कम नहीं। किसी भी सनसनीखेज आंकड़े को तत्काल बयानबाज़ी में बदलने से पहले तीन सरल चेक काम आते हैं—मूल स्रोत और डेटा-डिक्शनरी देखें, वैकल्पिक आधिकारिक स्रोत से क्रॉस-वेरिफ़ाई करें, और विशेषज्ञ से 'प्लॉजिबिलिटी चेक' कराएँ। यह एक घंटे की देरी, कई दिनों के विवाद बचा सकती है।
सोशल मीडिया की पारिस्थितिकी इस आग को हवा देती है। एल्गोरिद्म नई/चौंकाने वाली बात को आगे धकेलते हैं; रीट्वीट/फॉरवर्ड की गति किसी भी स्पष्टीकरण से तेज होती है। ऐसे में जिन खातों का असर अधिक है—शोधकर्ता, पत्रकार, नेता—उनके लिए "ड्राफ्ट-टू-पब्लिश" के बीच 'कूलिंग-ऑफ' रूल, यानी 30–60 मिनट का रिव्यू गैप, एक व्यावहारिक उपाय हो सकता है।
CSDS और लोकनीति का नाम चुनावी अध्ययन में वर्षों से जुड़ा रहा है। इसलिए इस एक घटना का असर संस्थागत साख पर पड़ेगा ही। पारदर्शी सुधार—जैसे रॉ डेटा/कोड का ओपन-रिलीज, थर्ड-पार्टी मेथडोलॉजी ऑडिट, और स्पष्ट एराटा—विश्वास बहाल करने के सीधे रास्ते हैं। संजय कुमार की सार्वजनिक माफी एक शुरुआती कदम है; असली परीक्षा यह होगी कि आगे डेटा गवर्नेंस कैसे कसी जाती है।
जहाँ तक राजनीति की बात है, 'वोट चोरी' जैसे बड़े आरोप तभी टिकते हैं जब प्रमाण सुसंगत, व्यापक और स्वतंत्र रूप से सत्यापित हों। अलग-अलग सीटों पर असामान्य पैटर्न दिखे तो उनका फॉरेंसिक—बूथ-लेवल पर रोल वेरियन्ट, नेट-एडिशन/डिलीशन, माइग्रेशन—से करना पड़ता है। एक वायरल शीट या थ्रेड किसी भी पक्ष के लिए ठोस सबूत नहीं बन पाती।
यह पूरा प्रकरण याद दिलाता है—डेटा शक्ति है, पर बिना संदर्भ के जोखिम भी। एक पंक्ति की चूक सिर्फ स्प्रेडशीट नहीं बिगाड़ती, लोकतांत्रिक विमर्श को भी झटका देती है। अगला कदम सभी के लिए साफ है—कम शोर, ज्यादा जांच; कम अनुमान, ज्यादा प्रमाण।