क्या 2016 का तुर्की तख्तापलट सिर्फ एक सैन्य विद्रोह था या उसकी जड़ों में गहरी राजनीतिक लड़ाई छिपी थी? यह सवाल सीधे राजनीति, समाज और कानून के बीच के टकराव से जुड़ा है। नीचे आसान भाषा में बताता हूँ कि क्या हुआ, क्यों हुआ और इसका असर आज किस तरह दिखता है।
15-16 जुलाई 2016 की रात तुर्की में सेना के एक हिस्से ने सरकार का नियंत्रण लेने की कोशिश की। राजधानी अंकारा और इस्तांबुल में सेना बख्तरबंद वाहनों, हेलीकाप्टरों और मिसाइलों के साथ निकल आई। संसद पर हमले की कोशिश हुई, विमान भी इस्तेमाल हुए। लेकिन आम लोग, पुलिस और राष्ट्रपति रजब तैय्यप एर्दोगान के समर्थकों ने सड़कों पर आकर विरोध किया। कुछ घंटे में ही विद्रोह दब गया और सरकार ने इसे नाकाम कर दिया।
सरकार ने इसे फेतुल्लाह गुलेन के अनुयायियों द्वारा किया गया अनुशासित प्रयास बताया। गुलेन अमेरिका में निर्वासित धार्मिक-राजनीतिक नेता हैं जिनके खिलाफ तुर्की में पहले से ही आरोप थे। सेना के उन हिस्सों को निशाना बनाया गया जिन्हें सरकार ने विद्रोही माना।
कई वजहें जुड़ी बताई जाती हैं: सत्ता संघर्ष, सुरक्षा संस्थाओं में टूट, और गुलेन-समर्थक नेटवर्क की राज्य पर पैठ। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि तख्तापलट को सरकार-समर्थक तत्वों ने भी अंतरराष्ट्रीय समर्थन और अंदरूनी विपक्ष को दबाने के लिए राजनीतिक हथियार बनाया। असल में इस घटना के पीछे कई स्तर थे — सैन्य रणनीति, नेटवर्किंग और राजनीतिक बदला—और सबका मिलाजुला असर रहा।
मुख्य खिलाड़ी थे: राष्ट्रपति एर्दोगान, जिन्होंने आपातकाल और बड़े पैमाने पर सफाई की घोषणा की; फेतुल्लाह गुलेन, जिनपर ऑफिशियल आरोप लगे; और सेना के वे कमांडर जिनपर सीधे कार्रवाई हुई।
तख्तापलट के बाद तुर्की में बड़े पैमाने पर गिरफ्तारी और बर्खास्तगी शुरू हुई—सैनिक, जज, पत्रकार, शिक्षक और प्रशासनिक कर्मचारी शामिल थे। आपातकाल के तहत सरकार ने मीडिया और विरोधी आवाज़ों पर कड़ा नियंत्रण लगाया। अर्थव्यवस्था और विदेशी निवेश पर भी असर पड़ा।
लंबी अवधि में क्या बदला? सुरक्षा नीतियाँ कड़ी हुईं, सत्ता केंद्रित हुई और लोकतांत्रिक संस्थानों पर दबाव बढ़ा। अंतरराष्ट्रीय संबंधों में खटास आई—खासकर यूरोप और अमेरिका के साथ। वहीं तुर्की के अंदर कई लोग इसे देश की सुरक्षा के लिए जरूरी कार्रवाई मानते हैं।
अगर आप तुर्की की खबरें पढ़ रहे हैं तो किन चीज़ों पर ध्यान दें: कौन सी संस्थाएँ, कौन से जज या अधिकारी प्रभावित हुए, मीडिया रिपोर्टिंग किस तरह नियंत्रित है, और विदेश नीति में क्या बदलाव आए हैं। ये संकेत बताते हैं कि घटना के बाद देश किस दिशा में बढ़ रहा है।
अंत में, तुर्की तख्तापलट केवल एक रात की घटना नहीं थी—यह तुर्की की राजनीतिक संरचना, नागरिक आज़ादी और अंतरराष्ट्रीय रिश्तों पर गहरा असर डालने वाली घटना थी। अगर आप इस टैग पर बने रहेंगे तो यहाँ से आप ताज़ा समाचार, विश्लेषण और मुकदमेबाज़ी की रिपोर्ट पा सकते हैं।
फेतुल्लाह गुलेन, जिन्होंने तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोआन के साथ अपने संबन्ध को प्रतिद्वंद्विता में बदल दिया था, 83 वर्ष की आयु में निधन हो गया। वह अपनी विचारधारा के कारण विवादास्पद रहे और तुर्की सरकार ने उन्हें तख्तापलट के पीछे मस्तिष्क बताया था। वह 1999 से अमेरिका के पेंसिल्वेनिया के पोकोनो पहाड़ियों में निवास कर रहे थे। उनका निधन तुर्की के लिए एक नई राजनीतिक बहस को जन्म दे सकता है।