दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर जी एन साईबाबा का 12 अक्टूबर, 2024 को हैदराबाद के निजाम इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज अस्पताल में निधन हो गया। वह 57 वर्ष के थे। साईबाबा ने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा शिक्षा और समाज के बीच एक ब्रिज बनाने में बिताया। लेकिन उनके जीवन का अंत एक त्रासदी के रूप में हुआ जब वह हृदयघात से निधन हो गए।
साईबाबा पिछले दस दिनों से स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे थे। उन्हें उनकी गिरती हुई स्वास्थ्य के कारण अस्पताल में दाखिल कराना पड़ा था। उनके गॉल ब्लैडर की सर्जरी की गई थी जिसके बाद उन्हें संक्रमण का सामना करना पड़ा। सर्जरी के बाद की जटिलताओं के चलते उन्हें आईसीयू में शिफ्ट कर दिया गया जहां उनकी स्थिति गंभीर बनी रही। आखिरकार, 12 अक्टूबर को रात 8:30 बजे डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया।
जी एन साईबाबा की सबसे बड़ी पहचान दिल्ली विश्वविद्यालय के राम लाल आनंद कॉलेज में अंग्रेजी के प्रोफेसर के रूप में थी। वह एक प्रतिभाशाली शिक्षक थे और शिक्षा के प्रति उनके समर्पण ने कई छात्रों को प्रेरित किया। हालांकि, उनका जीवन विवादों से भी अछूता नहीं रहा। 2014 में उन्हें माओवादी लिंक के संदेह में निलंबित कर दिया गया था।
19 मई, 2014 को उन्हें महाराष्ट्र पुलिस, आंध्र प्रदेश पुलिस और इंटेलिजेंस ब्यूरो की एक संयुक्त टीम द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया था। उनके ऊपर आरोप था कि वह माओवादी संगठनों के साथ संबंध स्थापित कर रहे थे। यह एक ऐसा आरोप था जिसका प्रभाव उनके जीवन और उनके परिवार पर गहरा पड़ा।
साईबाबा का जीवन और कैरियर तब और कठिन हो गया जब 2017 में गढ़चिरोली, महाराष्ट्र की एक अदालत ने उन्हें और पांच अन्य को देशविरोधी गतिविधियों के लिए दोषी ठहराया। उन पर नक्सल साहित्य रखने का आरोप था, जिसे वह गढ़चिरोली के निवासियों और भूमिगत नक्सलितों के बीच फैलाना चाहते थे।
हालांकि, मार्च 2024 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने इस मामले में जी एन साईबाबा को बरी कर दिया। उन्हें आरोपों से मुक्त कर दिया गया और 7 मार्च, 2024 को नागपुर केंद्रीय जेल से रिहा कर दिया गया। जेल में बिताए 3,799 दिनों की यातना उन्हें मनोवैज्ञानिक और शारीरिक रूप से प्रभावित कर गई।
जी एन साईबाबा की कहानी एक उदाहरण है कि कैसे एक व्यक्ति अपने सिद्धांतों के लिए लड़ सकता है, भले ही उसके खिलाफ कितनी भी चुनौतियाँ क्यों न हों। उनका निधन न केवल उनके परिवार और अनुयायियों के लिए बल्कि छात्रों और शिक्षा जगत के लिए भी एक बड़ी क्षति है। उनके संघर्ष और न्याय के लिए उनकी जंग आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा साबित होगी।
उनकी विरासत हमें यह सिखाती है कि उम्मीद और संघर्ष मानवता के अहम गुण हैं और दुनिया के व्यवस्थित अन्याय के खिलाफ लड़ाई हमेशा जारी रहनी चाहिए।
जी.एन. साईबाबा की अचानक गई हुई खबर सुनकर सभी शिक्षकों का दिल दहला गया। उनका शिक्षण जीवन दिल्ली विश्वविद्यालय में अनेक छात्रों के भविष्य को आकार देने में अहम रहा। हमें याद रखना चाहिए कि उन्होंने कक्षा में सिर्फ पाठ्यक्रम ही नहीं, बल्कि नैतिक मूल्यों को भी स्थापित किया। उनका स्वभाव सहयोगी और समावेशी था, जिससे वह छात्रों के मित्र बन गए। उन्होंने कई सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेकर अपने विचारों को व्यावहारिक रूप में लाने की कोशिश की। उनके स्वास्थ्य संघर्षों के दौरान भी वह लगातार छात्रों के साथ संवाद बनाकर रखे रहे। इस कठिन घड़ी में उनके परिवार को शांति और सहारा मिलने की कामना है। शिक्षा के क्षेत्र में उनका योगदान अब भी कई शोध पत्रों और सत्रियों में जीवित है। शिक्षा नीति के निर्माण में उनकी सलाह को कई बार मान्यता मिली थी। नक्सल मामलों में उनका मुक़दमा एक कठिन परीक्षा थी, फिर भी उन्होंने साहस नहीं खोया। अंत में न्यायालय ने उन्हें बरी कर दिया, जो उनके धैर्य का परिचायक था। आज हम उनके लिये श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं और आशा करते हैं कि उनका आदर्श आगे भी चलती रहे। उनका निष्ठा, संघर्ष और मानवीय भावना हमें हमेशा प्रेरित करती रहेगी। हम सभी उनका स्मरण कर, उनके सिद्धांतों को अपने जीवन में लागू करने का प्रयत्न करेंगे।
साईबाबा की मृत्यु एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना है, परन्तु उनके पूर्व में माओवादी संलिप्तता के आरोपों को पूरी तरह से अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। कई स्रोत बताते हैं कि न्यायिक प्रक्रिया में कई प्रश्न उभरे हैं, जिससे यह स्पष्ट नहीं है कि सबूत कितने प्रामाणिक थे।
एक शिक्षाविद के रूप में साईबाबा ने भारतीय शैक्षणिक परिदृश्य में विविधता और बहुसांस्कृतिक संवाद को बढ़ावा दिया। उनका कार्य केवल कक्षा तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने विभिन्न सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी करते हुए एक संतुलित दृष्टिकोण प्रस्तुत किया।
देश के प्रति उनका समर्पण कभी भी राजनीतिक षड्यंत्र में नहीं बदलना चाहिए; हमें यह याद रखना चाहिए कि राष्ट्रीयता का अर्थ केवल एकता और प्रतिबद्धता है, न कि अव्यवस्थित आरोप-प्रतिदोष।
साईबाबा का दिल टूट गया, बस इतना ही।
उनके निधन सन्देश देता है कि शैक्षणिक क्षेत्र में भी जीवनी की जटिलताएँ असीम हो सकती है; विवादों का शासनसत्र भी अनिवार्य है।
वास्तव में हृदयघात अक्सर मौजूदा तनाव और अनियंत्रित रक्तचाप के कारण होता है, इसलिए उनका शीघ्र उपचार होना चाहिए था।
साईबाबा के जीवन की कहानी हमारे समाज में कई निर्मित बंधनों को तोड़ने की एक प्रेरणा है; उनका शैक्षणिक सफर, जो कि शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों को जोड़ता है, एक महत्त्वपूर्ण पुल की तरह कार्य करता है, जिससे छात्रों को विविध दृष्टिकोण मिलते हैं; उनके द्वारा आयोजित व्याख्यान, जो अक्सर सांस्कृतिक विविधता और सामाजिक जिम्मेदारी पर केंद्रित होते थे, ने कई युवा मनों को जागृत किया; इसी प्रकार, उनके वैयक्तिक संघर्षों ने यह प्रमाणित किया कि व्यक्तिगत कठिनाइयाँ सार्वजनिक सेवा में बाधा नहीं बननी चाहिए, बल्कि उन्हें एक प्रेरणा के रूप में देखा जाना चाहिए।
ओह, फिर एक और "शिक्षक-योद्धा" का अफ़सोस, कौन सोचता था कि कॉर्टरूम में लड़ाई की तुलना कक्षा में दी गई टीचर की उत्साह से नहीं की जा सकती?
देशभक्तों को याद रखना चाहिए कि ऐसी विद्वानें हमेशा राष्ट्रीय उन्नति के लिए ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक पहचान के संरक्षण के लिये भी संघर्ष करती हैं
हर कोई साईबाबा को एक ही लेंस से देखता है, लेकिन वास्तव में उनका जीवन एक मोज़ैक जैसा है-कभी चमकीला, कभी धुंधला, हमेशा बहु‑परतीय।
उनकी शैक्षिक पद्धति को समझने के लिये हमें उनके प्रकाशित शोधपत्रों में बताई गई आलोचनात्मक सोच को अपनाना चाहिए, जिससे भविष्य की पीढ़ी बेहतर ढंग से तैयार हो सके।
साईबाबा ने हमेशा कहा था कि शिक्षा केवल ज्ञान नहीं, बल्कि नैतिकता का भी प्रसार है; वास्तव में, उनके छात्रों ने ही कई सामाजिक पहल की शुरुआत की, जो आज भी चल रही हैं।
कभी‑कभी ऐसा भी लगता है कि इन सभी घटनाओं के पीछे कोई गुप्त एजेंट काम कर रहा हो, जो शैक्षणिक क्षेत्र में संदेह उत्पन्न करने के लिये व्यवधान पैदा करता है।
साईबाबा का केस हमें एक महत्वपूर्ण एथिकल डाइलेम्मा प्रस्तुत करता है: व्यक्तिगत विश्वास और सार्वजनिक भूमिका के बीच संतुलन कैसे स्थापित किया जाए? इस प्रश्न पर विचार करते हुए, हमें स्टैंडर्ड ऑपरेशनल प्रोसीजर (SOP) की पुनः समीक्षा करनी चाहिए, जिससे भविष्य में समान परिस्थितियों में बेहतर नियमन संभव हो सके।
आइए हम साईबाबा की स्मृति को सम्मानित करने के लिये एक शैक्षणिक फाउंडेशन स्थापित करें; यह न केवल उनके योगदान को सहेजेगा, बल्कि आने वाले शिक्षकों को प्रेरित भी करेगा।
याद रखो हम सब मिलकर उनका आदर्श जारी रख सकते हैं, चलो मिलजुल कर नई पहल करें
साईबाबा के कार्यकाल को उच्चतम शैक्षणिक मानदंडों के तहत पुनः मूल्यांकन की आवश्यकता है।
उनका जीवन हमें सिखाता है कि संघर्ष के बावजूद सत्य के लिये टिका रहना चाहिए।