कॉमेडी का सबसे बड़ा रिकॉर्ड एक कॉमेडियन के नाम

दुनिया में कोई भी बड़ा स्टार 1,000 से ज्यादा स्क्रीन क्रेडिट्स वाला रिकॉर्ड नहीं बना पाया, लेकिन यह कमाल एक कॉमेडियन ने कर दिखाया। बात हो रही है ब्रह्मानंदम की—तेलुगु सिनेमा के उस कलाकार की, जिसकी टाइमिंग और एक्सप्रेशंस ने दक्षिण भारतीय फिल्मों की कॉमेडी को एक अलग दर्जा दिया। 1 फरवरी 1956 को जन्मे इस लीजेंड के नाम गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड है—जीवित अभिनेता के तौर पर सबसे ज्यादा स्क्रीन क्रेडिट्स। उम्र 69, लेकिन प्रभाव अब भी ताज़ा।

आंध्र प्रदेश के सत्तेनपल्ली के पास चगंटी Vari पालेम गांव में जन्म, पिता नागलिंगाचार्य बढ़ई थे और घर में आठ भाई-बहन। साधारण पृष्ठभूमि के बावजूद उन्होंने तेलुगु साहित्य में एमए किया और वेस्ट गोदावरी जिले के अत्तिली में तेलुगु के व्याख्याता बने। थिएटर और मिमिक्री उनका जुनून था—कॉलेज के दिनों में नारसरावपेट की इंटर-कॉलेज प्रतियोगिताओं में अभिनय और फैंसी ड्रेस में लगातार जीत ने उन्हें मंच का आत्मविश्वास दिया।

टीवी ने दरवाजा खोला। 1985 में डीडी तेलुगु के शो ‘पकपक्लु’ में उनके छोटे-छोटे स्केच दर्शकों को भाए। यहीं से निर्देशक जांध्याला की नजर पड़ी और 1987 में ‘आहा ना पेल्लंटा!’ में मौका मिला। यह ब्रेकथ्रू था—डायलॉग डिलीवरी, चेहरा-मोहरा, और शरीर की भाषा; सब मिलकर उन्होंने ऐसा ह्यूमर बनाया जो परिवारों को भी पसंद आया और सिंगल-स्क्रीन दर्शकों को भी।

90 के दशक और 2000 के शुरुआती सालों में तेलुगु फिल्मों में ‘कॉमेडी ट्रैक’ एक अलग यूनिट की तरह शूट होता था। प्रोड्यूसर अक्सर पूछते—इस फिल्म में ब्रह्मी का ट्रैक कितना लंबा है? डिस्ट्रीब्यूशन मीटिंग्स में यह जानकारी बिजनेस के अनुमान बदल देती थी। कई बार पूरी फिल्म के तनाव को उनकी एंट्री हल्का कर देती, और गालियाँ-फूहड़पन छोड़कर चुटीला, चेहरे पर खेला गया मज़ाक देखने को मिलता।

उनकी खासियत? विराम और नज़र। वे पंचलाइन जितना ही ठहराव को भी मज़ेदार बनाते हैं। एक सीन में सिर्फ आंखें घुमाना, हल्का सा ठहाका, या आधा बोला गया वाक्य—और थिएटर में सीटें हिल उठती थीं। इसी वजह से डायरेक्टर्स को भरोसा रहता कि ब्रह्मी आएंगे तो सीन उठेगा, चाहे कहानी कितनी भी गंभीर हो।

करियर की रफ्तार का अंदाज़ा इस बात से लगाइए कि एक ही महीने में वे चार–पांच फिल्मों की शूटिंग जोड़-तोड़कर कर लेते। इंडस्ट्री के सूत्र कहते हैं—उनकी फीस घंटों में तय होने लगी; शूट जितनी तेज़, उतना फायदा। यह उसी कलाकार की कमाई का ग्राफ है जो कभी कॉलेजों में मिमिक्री करके ट्रॉफियां जुटाता था और बाद में सेट पर एक टेक में सीन निपटा देता था।

गिनीज रिकॉर्ड के पीछे की मेहनत सीधी रेखा नहीं थी। छोटे रोल, डबल-शिफ्ट, अलग-अलग शहरों की लोकेशंस—और फिर भी हर बार नया अंदाज़। वे कभी शोर नहीं मचाते; कैरेक्टर बदलते हैं। कभी गोलमाल खातों वाला क्लर्क, कभी झूठा स्वैग दिखाता इंस्पेक्टर, कभी फेल-से-उतरे गुरुजी, तो कभी जाने-अनजाने में कहानी के हीरो को मात दे देता जोक-क्राफ्टर।

इसी स्ट्रीक में ‘यमदोंगा’, ‘एवादी गोल वाडीदी’, ‘संदड़े संदड़ी’, ‘बाबाई होटल’, ‘यमलीला’ और ‘अत्तरिंटिकी दरेदी’ जैसी हिट फिल्में आईं। 2014 में ‘रेस गुर्रम’ में उनका ‘किल बिल पांडे’ वाला ट्रैक तो थिएटर में सीटियां पिटवाता रहा। तेलुगु के साथ-साथ तमिल और कन्नड़ फिल्मों में भी उनकी डिमांड बनी रही।

अवार्ड्स ने इस सफर को दस्तावेज़ किया—छह नंदी अवार्ड, दो फिल्मफेयर अवार्ड्स, कई CineMAA और SIIMA सम्मान। 2009 में भारत सरकार ने पद्मश्री दिया। आचार्य नागार्जुन यूनिवर्सिटी ने मानद डॉक्टरेट देकर उनके सांस्कृतिक योगदान को सलाम किया। अवार्ड्स से ज्यादा मायने रखता है कि वे तीन दशक तक लगातार भीड़ को हंसाते रहे—यह किसी एक शैली से मुमकिन नहीं, यह कलाकार का विकास मांगता है।

बॉक्स ऑफिस की भाषा में भी उनका असर पढ़ा जा सकता है। जब स्टार-केंद्रित मसाला फिल्मों का स्वर्णकाल था, ब्रह्मी की मौजूदगी विज्ञापन की तरह काम करती थी—गीतों और एक्शन के बीच एक भरोसेमंद कॉमेडी पैच। मल्टीप्लेक्स कल्चर और फिर स्ट्रीमिंग के दौर में हास्य का टोन बदलने लगा; स्केच-स्टाइल के बजाय सिचुएशनल ह्यूमर को जगह मिली। 2015 के बाद उनकी फिल्मों की संख्या घटी, पर जब भी वे आए—सीन कॉन्फिडेंस के साथ उठ खड़ा हुआ।

उनका प्रभाव सिर्फ पर्दे तक सीमित नहीं रहा। मीम कल्चर ने उनके रिएक्शंस को नए दर्शक दिए—व्हाट्सएप स्टिकर्स से लेकर रील्स तक। जिन लोगों को तेलुगु समझ नहीं आती, वे भी उनके एक्सप्रेशन पहचान जाते हैं। दक्षिण भारतीय सिनेमा के कई युवा कॉमेडियंस—स्टैंड-अप से लेकर कैरेक्टर-आर्टिस्ट—उनके टाइमिंग और ‘रिएक्ट-बिफोर-यू-स्पीक’ वाले नियम से सीख लेते हैं।

हीरो की आभा में दबे बिना स्क्रीन हड़पने की उनकी कला दिलचस्प है। वे पंक्तियां अपने लिए नहीं लिखवाते; स्थिति को अपने पक्ष में मोड़ते हैं। इसलिए उनकी छोटी एंट्री भी याद रह जाती है—जैसे फर्जी-सीरियस चेहरा और अचानक निरर्थक आत्मविश्वास, जो किसी बड़े-बड़े खलनायक का वजन भी हल्का कर दे।

काम के तरीकों में अनुशासन साफ दिखता है। यूनिट्स बताते हैं—वे स्क्रिप्ट को थकाकर पढ़ते हैं, शब्द नहीं बैठें तो चुपचाप पर्याय ढूंढ लेते हैं, और कैमरा रोल होते ही ‘इन-कैरक्टर’ हो जाते हैं। ऐसे कलाकारों के साथ एडिट टेबल पर काम आसान हो जाता है क्योंकि पंचलाइन फ्लैट नहीं पड़ती।

अवार्ड्स, परिवार और आज का ब्रह्मानंदम

अवार्ड्स, परिवार और आज का ब्रह्मानंदम

कैरियर जितना लंबा, उतनी ही लंबी उपलब्धियों की सूची। छह नंदी और दो फिल्मफेयर अवार्ड्स के अलावा उन्हें हैदराबाद टाइम्स फिल्म अवार्ड्स और कई प्रेक्षक-चॉइस सम्मान मिले। यह मान्यता सिर्फ ‘हंसाने’ के लिए नहीं, बल्कि फिल्मों को ‘कमर्शियल और कल्चर’ दोनों नजरों से समृद्ध करने के लिए थी।

परिवार साधारण और जमीन से जुड़ा रहा। बड़े बेटे राजा गौतम अभिनेता हैं और दूसरे बेटे सिद्धार्थ फिल्म प्रोडक्शन से जुड़े। घर के लोग बताते हैं—वे कला के दूसरे रूपों से भी मोह रखते हैं; पेंटिंग और शिल्पकारी में घंटे गुजार देना उनके लिए आराम का तरीका है। यही संवेदना उनके अभिनय में भी दिखती है—तुरंत बोलने के बजाय महसूस करके बोलना।

2019 में दिल से जुड़ी दिक्कत के बाद उनकी सर्जरी हुई और वे ठीक हुए। इसके बाद उन्होंने काम की स्पीड को संतुलित किया, चुनिंदा प्रोजेक्ट्स पर ध्यान दिया। उम्र के इस पड़ाव पर भी उनका लक्ष्य वही रहा—सीन में ईमानदार होना। जब कोई निर्देशक चाहता है कि भीड़ एक साथ हंसे, तो आज भी उनकी टाइमिंग वैसी ही काम करती है जैसी 90 के दशक में करती थी।

उनकी कमाई और मार्केट वैल्यू का जिक्र अक्सर सुर्खियों में रहता है। पीक फेज में उनकी फीस घंटे के हिसाब से लाखों तक बताई जाती थी—यह आंकड़ा सिर्फ रकम नहीं, बल्कि भरोसा है कि शूटिंग का हर मिनट आउटपुट देगा। जब क्रू को पता हो कि कलाकार ‘डिलीवर’ करेगा, तो प्रोडक्शन का जोखिम घट जाता है।

सवाल उठता है—यह रिकॉर्ड टूटेगा क्या? सिनेमा की मौजूदा रफ्तार, रिलीज़ के नए प्लेटफॉर्म्स, और कंटेंट की दिशा देखकर कहना मुश्किल है। इतने लंबे समय तक लगातार काम, अलग-अलग शैलियों में फिट बैठना, और हर दशक में प्रासंगिक बने रहना—यह संयोजन ही दुर्लभ है। रिकॉर्ड इसलिए रिकॉर्ड होता है क्योंकि वह सिर्फ मेहनत नहीं, समय, किस्मत और निरंतर आत्म-सुधार का गठजोड़ होता है।

फिल्मोग्राफी की मोटी झलक देखें तो एक पैटर्न दिखेगा—वह ‘हर किसी के साथ काम’ वाला भरोसा। चिरंजीवी से लेकर नागार्जुन, बालकृष्ण, पवन कल्याण, महेश बाबू, जूनियर एनटीआर, अल्लू अर्जुन, राम चरण और प्रभास—लगभग हर टॉप स्टार के साथ उनके सेट-पीसेज हैं। अलग-अलग निर्देशकों—जांध्याला, एस.एस. राजामौली, त्रिविक्रम श्रीनिवास, पुरी जगन्नाध—की फिल्में बताती हैं कि वे स्टाइल-शिफ्ट के साथ चल पाए।

अगर आप उनकी फिल्मों की एक छोटी-सी लिस्ट बनाना चाहें, तो शुरुआती से लेकर मिड-करियर और हालिया दौर तक यह नाम बार-बार लौटते हैं:

  • आहा ना पेल्लंटा! (1987) — ब्रेकथ्रू और स्टाइल सेट करने वाली फिल्म
  • यमलीला, बाबाई होटल — 90 के दशक के सिग्नेचर कॉमेडी ट्रैक्स
  • एवादी गोल वाडीदी, संदड़े संदड़ी — फुल-ऑन एंटरटेनमेंट फेज
  • यमदोंगा — फैंटेसी-जोन में शुद्ध टाइमिंग का नमूना
  • रेडी, डूकुडु — स्टार-ड्रिवन फिल्मों में कॉमेडी का संतुलन
  • अत्तरिंटिकी दरेदी — फैमिली एंटरटेनर में यादगार स्पूफिंग
  • रेस गुर्रम — ‘किल बिल पांडे’ वाला मैराथन कॉमिक स्ट्रेच

आज का सिनेमा बदल चुका है—स्क्रीन छोटे हो गए हैं, एडिट तेज़ है, दर्शक धैर्यहीन भी और चतुर भी। फिर भी जो चीज नहीं बदली, वह है एक अच्छे रिएक्शन का असर। ब्रह्मानंदम ने यही सिखाया कि कॉमेडी सिर्फ शब्द नहीं; वह रुकना, देखना, और ठीक उसी क्षण मुस्कुरा देना भी है। इसी माइक्रो-सेकंड की कला ने उन्हें रिकॉर्ड पर रिकॉर्ड दिलाए—and यही वजह है कि यह रिकॉर्ड तोड़ना किसी भी हीरो के बस की बात अभी नहीं लगती।

टिप्पणि (8)

Jyoti Kale
  • Jyoti Kale
  • अगस्त 28, 2025 AT 18:34 अपराह्न

ब्रह्मानंदम का रिकॉर्ड बस अपनी ही कबीले की बात है

Ratna Az-Zahra
  • Ratna Az-Zahra
  • सितंबर 4, 2025 AT 03:34 पूर्वाह्न

बिलकुल ठीक कहा, ये रिकॉर्ड फिल्म इंडस्ट्री की क्वालिटी को नहीं दिखाता। आम जनता को तो बस मसाला चाहिए, कॉमेडी की गहराई पर ध्यान नहीं देता। ब्रह्मानंदम ने अपना टाइमिंग से काम चलाया, पर क्या यही करिश्मा अब भी टिकेगा? हर दशक में बदलते दर्शक मानदंड उससे अधिक मांगते हैं।

Nayana Borgohain
  • Nayana Borgohain
  • सितंबर 10, 2025 AT 12:34 अपराह्न

समझ रहा हूँ कि टाइमिंग ही सब कुछ है, पर क्या यही क्रिएटिविटी का एकमात्र रूप है? 😏

Abhishek Saini
  • Abhishek Saini
  • सितंबर 16, 2025 AT 21:34 अपराह्न

बिलकुल, ब्रह्मानंदम का जॉब इफेक्ट बहुत स्ट्रॉन्ग है। उनका टाइमिंग देख के नयी पीढ़ी को सीख लेनी चाहिए। थोडा मेहनत और प्रैक्टिस से कोई भी इस लेवल तक पहुंच सकता है। बस दिमाग में ये रखो, कॉमेडी में रिदम ही लाइफ है।

Parveen Chhawniwala
  • Parveen Chhawniwala
  • सितंबर 23, 2025 AT 06:34 पूर्वाह्न

वास्तव में, उनके अधिकांश सीन में कैमरा एंगल और लाइटिंग भी खास रोल निभाते हैं। सिर्फ़ एक्टिंग नहीं, सेट‑डिज़ाइन भी उनका कॉमिक इम्पैक्ट बढ़ाता है। इसलिए ही प्रोडक्शन टीम उन्हें हमेशा प्राथमिकता देती है।

Saraswata Badmali
  • Saraswata Badmali
  • सितंबर 29, 2025 AT 15:34 अपराह्न

ब्रह्मानंदम का फिल्मोग्राफिक पर्स्पेक्टिव कॉम्प्लेक्स साइनैप्टिक मॉड्यूल के रूप में विश्लेषित किया जा सकता है।
उनके प्रत्येक लघु कंट्रीब्यूशन में एक एंट्रॉपिक इंटरेक्शन फॉर्मूला सम्मिलित होता है।
इस फॉर्मूले को समझना न केवल सिनेमैटिक डायनेमिक्स बल्कि सांस्कृतिक एटेलिएशन का भी परीक्षण है।
जैसे-जैसे 1990 के दशक में पोस्ट-मॉडर्न नार्रेटिव स्ट्रक्चर उभरा, उनका कॉमिक टाइमिंग उसी के साथ सिनर्जिस्टिक रूप से समन्वित हुआ।
वह अक्सर मीटाबोलिक पेसिंग का उपयोग करके दर्शक के एंट्रॉपिक कनेक्शन को मोड्यूलेट करता है।
उनकी पर्सोना का ह्यूमर फ्रीक्वेंसी स्पेक्ट्रम मुख्यधारा के बॉक्स-ऑफ़िशियल टोन से स्पष्ट रूप से डिस्टिंक्ट है।
इसीलिए प्रोडक्शन हाउसेज़ ने उन्हें कास्टिंग एलिट में वर्गीकृत किया, जिससे मार्केट वैल्यू में एक्स्पोनेंशियल ग्रोथ हुई।
एक्सपर्ट्स यह भी नोट करते हैं कि उनके सीन में साइलेंस का इंटेन्सिटी एक क्वांटम लेवल पर ऑपरेट करता है।
जब वह केवल आँख मारता है, तो वह न्यूनतम सर्वाइवल एनर्जी को मैक्सिमम इमजेज़ में ट्रांसफॉर्म कर देता है।
यह ट्रांसफॉर्मेशन एक पैराडाइग्म शिफ्ट को संकेतित करता है, जो फिल्म इंडस्ट्री के कॉमेडी एस्थेटिक को पुनः परिभाषित करता है।
वास्तव में, उनका 'रिएक्ट-प्रिओर-यू-स्पीक' मैकैनिज्म एक सिम्बायोटिक सिस्टम जैसा है, जो डाइरेक्टर की विज़न के साथ सिंक्रोफेज़ में कार्य करता है।
इस क्लासिक मॉडल को अपनाने से कई नवोदित कॉमेडियन्स ने अपने एल्गोरिथ्मिक टाइमिंग को ऑप्टिमाइज़ किया।
बाजार में निरन्तरता और एडेप्टबिलिटी को देखते हुए, उनका रिकॉर्ड केवल मैट्रिक्स के एक सेल का प्रतिनिधित्व नहीं, बल्कि सम्पूर्ण क्रीडिट एर्रे का बेज़ल है।
इस बेज़ल को तोड़ने हेतु नयी पीढ़ी को न केवल शारीरिक लचीलापन बल्कि डाटा-ड्रिवेन इंटेलिजेंस भी आवश्यक होगी।
निष्कर्षतः, ब्रह्मानंदम का योगदान एक सिंगल डाइमेंशनल एंटरटेनमेंट फेनोमेना से परे, एक मल्टीडायमेंशनल कल्टुरल इकोसिस्टम है।
भविष्य में जब ऑटोमैटिक कॉमेडी जेनरेटर्स आएँगे, तब भी उनका टाइमिंग मॉड्यूल एक रेफ़रेंस पॉइंट बना रहेगा।

sangita sharma
  • sangita sharma
  • अक्तूबर 6, 2025 AT 00:34 पूर्वाह्न

बहुत विस्तृत विश्लेषण दिया आपने, मैं पढ़ते‑पढ़ते थक गया लेकिन बात समझ में आई।

PRAVIN PRAJAPAT
  • PRAVIN PRAJAPAT
  • अक्तूबर 12, 2025 AT 09:34 पूर्वाह्न

इस सबको देख के लग रहा है कि रिकॉर्ड तोड़ना अब बस नाम की बात रह गई है

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