दो साल में पांचवां प्रधानमंत्री: फ्रांस की सियासत में फिर बड़ा उलटफेर

दो साल से भी कम समय में पांचवीं बार फ्रांस को नया प्रधानमंत्री मिला है। राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने मंगलवार, 10 सितंबर 2025 को 39 वर्षीय सेबास्टियन लेकॉर्नू को प्रधानमंत्री नियुक्त किया। यह कदम फ्रांस के राजनीतिक अस्थिरता वाले दौर में आया है, जहां संसद में सरकार का बहुमत पक्का नहीं है और अविश्वास प्रस्तावों का साया लगातार बना रहता है। फ्रांसिस बायरू के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पास होने के बाद उन्हें पद छोड़ना पड़ा और मैक्रों को फिर से प्रधानमंत्री बदलना पड़ा।

बायरू का दांव उल्टा पड़ा। उन्होंने सख्त बजट प्रस्ताव पर सांसदों को राजी करने के लिए दांव ऊंचा लगाया, लेकिन विरोध और बढ़ गया। नतीजा—सरकार गिर गई और एलिसी पैलेस को तुरंत नया चेहरा खोजना पड़ा। मैक्रों ने रक्षा मंत्री के तौर पर तीन साल तक काम कर चुके लेकॉर्नू पर भरोसा किया, जो 2017 से अब तक उनके साथ लगातार सरकार में बने रहे हैं। यह रिकॉर्ड अपने आप में बताता है कि मैक्रों उन्हें भरोसेमंद मानते हैं और प्रशासन चलाने की बारीकियां वो जानते हैं।

नियुक्ति के बाद लेकॉर्नू ने प्राथमिकताएं साफ कीं—"राष्ट्र की स्वतंत्रता और शक्ति की रक्षा, फ्रांसीसी जनता की सेवा, और देश की एकता के लिए राजनीतिक व संस्थागत स्थिरता।" शब्दों में सादगी है, लेकिन काम आसान नहीं। संसद बंटी हुई है, और हर बड़े बिल के लिए सौदेबाजी करनी पड़ती है।

यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि मैक्रों ने रक्षा मंत्री को ही क्यों चुना। एक वजह अनुभव है। रूस-यूक्रेन युद्ध के दौर में फ्रांस की रक्षा नीति, हथियार आपूर्ति और यूरोपीय समन्वय में लेकॉर्नू फ्रंटफुट पर रहे। 2024-2030 का सेना आधुनिकीकरण कार्यक्रम (एलपीएम) आगे बढ़ाने में उनकी भूमिका थी, जिसका मकसद फ्रांसीसी सेनाओं के उपकरण, गोला-बारूद और साइबर क्षमता को मजबूत करना है। संकट के वक्त संकट-प्रबंधन की ऐसी ट्रेनिंग, प्रधानमंत्री कार्यालय में काम आ सकती है।

दूसरी वजह राजनीति है। लेकॉर्नू की शुरुआती राजनीति केंद्र-दक्षिणपंथ के साथ रही, बाद में वे मैक्रों के साथ जुड़े। यही प्रोफाइल उन्हें रिपब्लिकन खेमे के कुछ सांसदों तक पहुंच बनाने में मदद दे सकता है—यानी वही ब्लॉक जो बजट पर निर्णायक वोट दे सकता है। मैक्रों को ऐसे चेहरे की जरूरत थी जो उनके एजेंडे के प्रति वफादार हो और विपक्ष के साथ बातचीत की नब्ज भी समझता हो।

लेकिन रास्ता सीधा नहीं है। संसद में गतिरोध की जड़ पिछले साल जून में कराए गए जल्दी चुनावों में है। इरादा केंद्र की पकड़ मजबूत करना था, परिणाम में तस्वीर और खंडित हो गई—सरकार अल्पमत में, विपक्ष कई खेमों में बंटा, और हर मुद्दे पर टकराव तय। यही कारण है कि दो साल से कम में पांच प्रधानमंत्रियों का दौर दिख रहा है—किसी का वक्त बजट पर फंसता है तो किसी का सुधारों पर।

फ्रांस के संविधान के तहत राष्ट्रपति प्रधानमंत्री नियुक्त करते हैं, लेकिन सरकार को नेशनल असेंबली में बहुमत की हवा अपने पक्ष में रखनी होती है। बजट तो खास तौर पर मुश्किल परीक्षा है। सरकार चाहें तो अनुच्छेद 49.3 के जरिए वोटिंग टालकर बिल पारित करा सकती है, पर उसकी कीमत विपक्षी अविश्वास प्रस्ताव होता है—जिसमें गिरने का खतरा हर बार बना रहता है। बायरू इसी खींचातानी में उलझे और चूक गए। लेकॉर्नू के सामने पहला सबक साफ है—जितना हो सके, टकराव से पहले सौदा और सहमति बनाओ।

अर्थव्यवस्था भी नरम नहीं है। 2023 में फ्रांस का बजट घाटा सकल घरेलू उत्पाद के 5% से ऊपर रहा और यूरोपीय संघ के 3% लक्ष्य की ओर लौटना आसान नहीं दिखता। इसका मतलब है खर्च में कटौती, कुछ कर बदलाव, और कई कार्यक्रमों की प्राथमिकता तय करना। बाजार और रेटिंग एजेंसियां नजर रखे हुए हैं। ऐसे समय में बजट पास न होना उधारी की लागत बढ़ा सकता है। राजनीति का समीकरण अर्थशास्त्र से जुड़ जाता है—और यहीं प्रधानमंत्री का कौशल परखा जाता है।

जनता का मूड भी सत्ताधारी गठबंधन के लिए चुनौती है। पेंशन सुधार पर 2023 में सड़कों पर भड़के विरोध आज भी याद हैं। हाल के प्रदर्शनों में लोगों ने साफ कहा—"हम लगातार बदलती सरकारों से थक चुके हैं, हमें बदलाव चाहिए।" यह थकान सिर्फ चेहरे से नहीं जाएगी; लोगों को ठोस नतीजे चाहिए—महंगाई पर राहत, ऊर्जा बिलों पर नियंत्रण और रोजमर्रा के कामकाज में भरोसा।

विश्लेषकों की नजर में असली पेंच वही है—सहयोग की कमी। पेरिस में जर्मन मार्शल फंड से जुड़ी रिसर्च विश्लेषक गेसीने वेबर ने ब्लूमबर्ग से कहा, "हम पिछले साल वाली ही समस्या से जूझ रहे हैं—विरोधी दल समझौते के लिए तैयार नहीं दिखते।" विपक्ष में दक्षिणपंथ की नेशनल रैली, वामपंथी गठबंधन और पारंपरिक रिपब्लिकन—सभी अपने-अपने एजेंडे पर अड़े हैं। ऐसे में किसी भी बिल के लिए वोट जुटाना हर बार नई पहेली जैसा है।

तो लेकॉर्नू क्या करेंगे? पहले सौ दिन में संकेत मिल जाएंगे। उन्हें जल्द मंत्रिपरिषद का ढांचा तय करना होगा—कौन मंत्रालय संभालेगा, किसे बरकरार रखा जाएगा, और कहां नया चेहरा आएगा। वित्त, आंतरिक और विदेश जैसे अहम मंत्रालयों में निरंतरता रखना बाजार और भागीदारों के लिए भरोसे का संकेत है। पर संसद में गणित बिना बदले कुछ विशेष नहीं बदलता। यहां उनकी ताकत बातचीत और प्राथमिकताएं साफ रखने में होगी।

संभावना है कि सरकार "बिल-बाय-बिल" रणनीति अपनाए—हर विधेयक पर अलग-अलग मुद्दों के आधार पर समर्थन जुटाया जाए। उदाहरण के लिए, रक्षा और आंतरिक सुरक्षा पर रिपब्लिकन खेमे का समर्थन मिल सकता है, जबकि सामाजिक नीति में वामपंथी दलों से कुछ मुद्दों पर सामंजस्य बन सकता है। यह स्थायी गठबंधन नहीं होगा, पर फिलहाल इसी रास्ते से सरकार चल सकती है।

रक्षा मोर्चे पर लेकॉर्नू की पकड़ उनके लिए संपत्ति है। यूक्रेन को समर्थन, यूरोपीय उद्योग के साथ मिलकर गोला-बारूद उत्पादन बढ़ाना, और इंडो-पैसिफिक में फ्रांस की मौजूदगी—इन पर उनकी समझ और अनुभव है। साहेल क्षेत्र में तख्तापलटों के बाद फ्रांस ने अपनी सैन्य तैनाती का पुनर्संतुलन किया; ऐसे फैसलों में उनके नेतृत्व ने व्यावहारिकता और जोखिम-प्रबंधन दिखाया। प्रधानमंत्री के रूप में, वही व्यावहारिकता घरेलू नीति में भी काम आए तो गतिरोध टूट सकता है।

विदेश नीति में मैक्रों का एजेंडा—यूरोपीय सामरिक स्वायत्तता, रक्षा सहयोग, और तकनीकी-औद्योगिक प्रतिस्पर्धा—जारी रहेगा। प्रधानमंत्री का दफ्तर इन प्राथमिकताओं को घरेलू राजनीति के साथ जोड़ता है। उदाहरण के लिए, रक्षा उद्योग में निवेश के फैसले संसद से गुजरते हैं; वहीं ऊर्जा परिवर्तन और डिजिटल रणनीति जैसे विषय बजट और नियमन से बंधे हैं। यह जोड़-तोड़ तभी टिकेगी जब सामाजिक खर्च और निवेश के बीच संतुलन का फॉर्मूला निकले।

संसदीय कैलेंडर कठोर है। शरद सत्र में राज्य बजट और सामाजिक सुरक्षा वित्त विधेयक दोनों आते हैं—यहीं से वास्तविक परीक्षा शुरू होती है। सरकार 49.3 का इस्तेमाल बार-बार करेगी तो विपक्ष हर बार अविश्वास प्रस्ताव लाएगा। हर अविश्वास प्रस्ताव एक राजनीतिक जुआ है—एक हार और सरकार चली गई। इसलिए लेकॉर्नू को पहले से वोट गिनती पक्की करनी होगी—किस धड़े से कितने सांसद, किस शर्त पर और किस अनुच्छेद पर।

मैदान के हालात भी बदल सकते हैं। अगर अवरोध बढ़ता है तो राष्ट्रपति के पास विधानसभा भंग कर नए चुनाव कराने का विकल्प हमेशा रहता है, हालांकि ऐसा कदम जोखिम भरा होता है और हालिया अनुभव बताता है कि परिणाम उम्मीद के उलट भी हो सकता है। पिछले साल के बाद अब संवैधानिक रूप से यह विकल्प फिर खुला है, मगर आज की प्राथमिकता ऐसा करने के बजाय कार्यनीतिक समझौते खोजना ही दिखती है।

मध्यमार्गी मतदाता इस वक्त स्थिरता चाहता है—न नाटकीय कटौती, न अनियोजित खर्च। यही संतुलन साधना मुश्किल है। सामाजिक कार्यक्रमों में कटौती करने पर सड़कों पर गुस्सा दिखेगा; कर बढ़ाने पर कारोबार और मध्यम वर्ग नाराज होगा। सरकार अगर गैर-जरूरी छूटों की समीक्षा, कर आधार चौड़ा करने और बेकार सब्सिडी का पुनर्मूल्यांकन जैसे कदमों से शुरुआत करे, तो राजनीतिक लागत मैनेज हो सकती है।

संचार रणनीति भी अहम है। पिछले सालों में बड़े फैसलों पर सरकार की दलीलें अक्सर जनता तक स्पष्ट नहीं पहुंचीं—पेंशन सुधार इसका उदाहरण है। लेकॉर्नू का फायदा यह है कि वे मीडिया में कम बोले जाने वाले, काम पर ज्यादा फोकस करने वाले मंत्री रहे हैं। अब प्रधानमंत्री के रूप में उन्हें ज्यादा खुलकर, सरल भाषा में और लगातार संवाद करना होगा—चाहे वह प्रेस कॉन्फ्रेंस हों, संसद के जवाब हों या सोशल मीडिया पर सवाल-जवाब।

कूटनीतिक संदेश भी साथ-साथ जाएगा। पेरिस यह दिखाना चाहेगा कि घरेलू खींचतान के बावजूद फ्रांस की अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताएं—चाहे वह नाटो के भीतर समन्वय हो या यूरोपीय संघ में बजट वार्ताएं—बिना बाधा जारी हैं। पार्टनरों के लिए यह संकेत जरूरी है कि फ्रांस के फैसले विश्वसनीय रहेंगे।

सड़क पर विरोध की संभावना बनी रहेगी। यूनियनें महंगाई से राहत, वेतन वार्ताओं और सार्वजनिक सेवाओं में निवेश को प्राथमिकता देने की मांग उठाएंगी। विपक्ष इस ऊर्जा को संसद के भीतर दबाव में बदलने की कोशिश करेगा। सरकार की कुशलता यह होगी कि वह कुछ ठोस, मापने योग्य रियायतें देकर माहौल ठंडा रखे—जैसे ऊर्जा बिलों पर लक्षित सहायता, छात्र आवास के लिए अतिरिक्त फंडिंग, या छोटे कारोबार के लिए कर प्रक्रिया आसान करना।

और राजनीति की बिसात? सत्तारूढ़ खेमे के भीतर भी शक्ति-संतुलन के धागे हैं—मोड़ सही पकड़ा तो सरकार सांस ले पाएगी, चूके तो एक और अविश्वास प्रस्ताव आसमान में मंडराने लगेगा। विपक्ष में, वाम और दक्षिण के बीच प्रतिस्पर्धा कभी-कभी सरकार के लिए अवसर बन जाती है—एक पक्ष अगर बहुत कठोर मांग रखे तो दूसरा व्यवहारिक सौदे के लिए तैयार हो सकता है। यही स्पेस लेकॉर्नू तलाशेंगे।

फिलहाल संकेत साफ हैं—फ्रांस को एक ऐसे प्रधानमंत्री मिले हैं जो संकट-प्रबंधन जानते हैं, राष्ट्रपति के भरोसेमंद हैं और सत्ता की मशीनरी को करीब से समझते हैं। असली परीक्षा अब संसद में, बजट पर और सड़क पर होगी। अगर वे शुरुआती हफ्तों में 2-3 ठोस, सहमति-आधारित फैसले करा लेते हैं—जैसे एसएमई के लिए टैक्स-प्रशासन में सरलता, ऊर्जा-कुशलता के लिए लक्षित अनुदान, और रक्षा उद्योग में स्थानीय आपूर्ति श्रृंखला का विस्तार—तो सरकार को सांस मिल जाएगी और राजनीतिक तापमान कुछ ठंडा पड़ेगा।

आगे क्या: सौदे, समयसीमा और पहली परीक्षाएं

निकट भविष्य के तीन चेकपॉइंट अहम हैं। पहला, मंत्रिमंडल की सूची—कितनी continuity रखी जाती है और किन जगह बदलाव होते हैं। दूसरा, बजट का खाका—घाटा घटाने का रोडमैप कितना यथार्थवादी है और किस पर बोझ डालता है। तीसरा, विपक्ष के साथ कार्य-आधारित समझौते—कौन से अध्याय पर किस ब्लॉक से समर्थन का भरोसा मिल रहा है।

मैदान की हकीकत नखरे नहीं समझती—वोट चाहिए, तभी बिल गुजरते हैं। इसलिए प्रधानमंत्री कार्यालय को व्हिपिंग, नंबर-काउंटिंग और सांठगांठ के लिए एक समर्पित कोर-टीम बनानी होगी, जो हर हफ्ते के एजेंडा पर पहले से काम कर ले। इस टीम के सामने टारगेट साफ होगा—अचानक की टक्कर से बचना, 49.3 का इस्तेमाल केवल तब करना जब वोट गिनती टूट जाए, और विपक्ष को छोटे-छोटे परंतु ठोस संकेत देना कि उनकी बात सुनी जा रही है।

फ्रांस की लोकतांत्रिक प्रणाली में यह सब नया नहीं है, लेकिन इस बार दांव ऊंचा है—क्योंकि अस्थिरता लंबी खिंच गई है और लोगों का भरोसा दांव पर लगा है। अगर लेकॉर्नू शुरुआती महीनों में स्थिरता का अहसास करा देते हैं, तो मैक्रों के लिए यह राजनीतिक राहत होगी। अगर नहीं, तो नई राजनीतिक अनिश्चितता, और संभव है कि फिर वही कठोर विकल्प—एक और अविश्वास या फिर एक और चुनाव—चर्चा में आ जाए।

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