जब उड़यन घुहा, उत्तरी बंगाल विकास मंत्री ने कहा कि मृतकों की संख्या 20 तक पहुँच गई है, तब से ही खबरें तेज़ी से फ़िल्टर हो रही थीं। उसी दिन मदता बनर्जी, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने भी अपने दौरे की सूचना दी, जबकि रिचर्ड लेपचा, डरजिलिंग उप-प्रशासकीय अधिकारी ने स्थानीय स्थितियों की वास्तविकता बताई। राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल (NDRF) ने जमीन‑तह पर बचाव कार्य शुरू कर दिया था, और भारत मौसम विज्ञान विभाग ने पहले ही लाल चेतावनी जारी कर दी थी। इस बीच, दुधिया आयरन ब्रिज का ढहना, मीरिक‑कुर्सेओंग के बीच कनेक्शन को पूरी तरह तोड़ रहा था। लैंडस्लाइड की यह शृंखला पूरे उत्तर‑बंगाल को जकड़ रही थी, और हजारों पर्यटक इस दुर्दशा के बीच फँसे हुए थे।
भारी वर्षा का कारण सिर्फ रातों‑रात नहीं था। अक्टूबर 4 की शाम से ही भारत मौसम विज्ञान विभाग ने नॉर्थ बंगाल के कई उप‑हिमालयी जिलों में अत्यधिक वर्षा की संभावना जताई थी। उन्होंने 5 अक्टूबर तक तीव्र बरसात की भविष्यवाणी करते हुए लाल चेतावनी दी, जिससे स्थानीय प्रशासन को आपातकालीन तैयारियों में लगना पड़ा। फिर भी, जलवायु परिवर्तन के कारण असाधारण मात्रा में जलस्रोतमुक्ति हो गई, जिससे पहाड़ी भू‑विज्ञान अस्थिर हो गया। कई विशेषज्ञों का मानना है कि पिछले कुछ दशकों में इस क्षेत्र में दरवर्ती बाढ़ और लैंडस्लाइड की आवृत्ति में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।
5 अक्टूबर की सुबह, मीरिक, सरसली, जासबीरगांव, मीची, नाघरकट्टा और मीरिक झील के आसपास कई जगहों पर अचानक ढिहाई-आकार की मिट्टी के बुथरें फट पड़ीं। NDRF के अनुसार, इन स्थानों में अकेले मीरिक में ही 11 लोगों की मौत हुई, जबकि दार्जिलिंग उप‑विभाग में सात मौतें दर्ज की गईं। चोटिल लोगों की संख्या सात से अधिक थी, और कई घायल अभी भी पहाड़ी क्षेत्रों में फंसे हुए हैं।
सुरक्षित रहना मुश्किल हो गया, क्योंकि भस्मित बाढ़ के साथ-साथ घटते जल स्तर ने राष्ट्रीय राजमार्ग 110 (हुसैन खोला) और 10 को भी प्रभावित किया। कई रास्ते बंद हो गए, जिससे सिलीगुड़ी‑दार्जिलिंग और सिकल‑डार्जिलिंग के बीच का मुख्य कनेक्शन टूट गया।
सबसे बड़ा शॉक तब आया, जब दुधिया आयरन ब्रिज, जो मीरिक और कुर्सेओंग को जोड़ता था, पूरे के पूरे झकड़ गया। इस पुल को स्थानीय लोग अक्सर पर्यटन‑संकुल का मुख्य दिल मानते थे, क्योंकि कई ट्रेकर्स और साहसी यात्रियों के लिए यह एक अहम रास्ता था। वीडियो फुटेज में दिखाई देता है कि तेज़ बहाव में पुल के लोहे के बीम टूटते हुए नीचे गिरते हैं, जबकि उस पर खड़े लोग साइड में पकड़ बनाते हैं।
स्थानीय अधिकारी राहत‑कार्य में इस हड़ताल को बड़े पैमाने पर चुनौती मान रहे हैं। पुल के टूटने से न केवल लोग अलग‑अलग हो गए, बल्कि आपातकालीन उपचार केंद्रों, अस्पतालों और खाद्य आपूर्ति तक पहुंच भी बाधित हो गई। अंसजनों ने कहा, "अब हम किनारे‑किनारे फँसे हैं, कोई वाहन नहीं चल सकता।"
उड़यन घुहा ने तुरंत रेडी‑कंट्रोल टीम को अलर्ट किया और कहा कि "बचाव के लिए सभी संसाधन जुटाए जा रहे हैं"। उन्होंने स्वयं क्षेत्र में पहुंचने का आश्वासन भी दिया। उसी दिन, मदता बनर्जी ने अपने कार्यालय से घोषणा की कि वह 6 अक्टूबर को प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करेंगी, जिससे जनता को आश्वस्त किया जा सके।
रिचर्ड लेपचा ने बताया कि स्थानीय पुलिस, राज्य आपदा प्रतिक्रिया बल और NDRF ने मिलकर दो हफ्तों तक कई जमीं‑भ्रष्ट स्थल से लोगों को बचाया है। उन्होंने यह भी कहा कि "हिंदुस्तान के कई हिस्सों में पहले ही कनेक्टिविटी टूटी हुई है, परंतु इस कठिनाई को पार करने के लिये हम सभी मिलकर काम करेंगे।"
विशेषज्ञों ने कहा कि इस तरह की आपात स्थितियों में जल‑प्रबंधन प्रणाली को सुदृढ़ करना आवश्यक है। उन्होंने सुझाव दिया कि पहाड़ी क्षेत्रों में नियमित रूप से भू‑स्थिरता निरीक्षण, जलीय स्रोतमुक्ति के लिए जल‑भंडारण बेसिन, और स्थानीय लोगों को जागरूक करने के लिए शिक्षा अभियान चलाए जाएँ।
भविष्य में इस तरह के लैंडस्लाइड की संभावना को कम करने के लिये कई कदम उठाने की जरूरत है। जलवायु वैज्ञानिक दावा करते हैं कि वार्षिक वर्षा पैटर्न में बदलाव और ग्लोबल वार्मिंग के कारण ऐसी विकट स्थितियाँ बढ़ेंगी। वे इस बात पर ज़ोर देते हैं कि "सिर्फ बुनियादी ढाँचा नहीं, बल्कि जल‑संचयन, निकासी प्रणाली और आपदा‑प्रबंधन नीतियों को भी पुनः-डिज़ाइन करना होगा।"
स्थानीय पहाड़ियों में बाढ़‑रोधी बुनियादों की कमी है, जिससे बाढ़‑के साथ‑साथ लैंडस्लाइड होने की संभावना अधिक होती है। एक प्रमुख भू‑रसायन विशेषज्ञ ने कहा, "यदि हम वृक्षारोपण, मिट्टी के स्थिरता प्रोजेक्ट और जल‑प्रवाह नियंत्रण पर काम नहीं करेंगे, तो अगले वर्ष भी यही दहशत फिर से दोहराई जा सकती है।"
दुधिया आयरन ब्रिज के पुनर्निर्माण के लिये अभी तक कोई स्पष्ट टाइम‑टेबल नहीं दिया गया है। राज्य सरकार ने बताया कि प्राथमिक रूप से आपातकालीन पुल स्थापित किए जाएंगे, जबकि दीर्घकालीन योजना में एक नई, आधुनिक और जल‑रोधी सिविल संरचना का निर्माण शामिल होगा।
स्थानीय किसान, छोटे व्यवसायी और पर्यटन‑निर्भर परिवार सबसे बड़ी क्षति झेल रहे हैं। कई घर बाढ़‑से‑बनाम‑लैंडस्लाइड के कारण ध्वस्त हो चुके हैं, जिससे उनकी आजीविका सीधे‑साथ प्रभावित हुई है।
राज्य ने आपातकालीन मेडिकल कैंप स्थापित किए, डाक्टरों को तैनात किया और प्रभावित क्षेत्रों में राहत‑सामान की आपूर्ति के लिये हेलीकॉप्टर के माध्यम से जौहियों को पहुँचाया। साथ ही, NDRF ने पहाड़ी इलाकों में सर्च‑ऑपरेशन तेज़ी से शुरू कर दिया।
पर्यटक प्रवाह अब बाधित हो चुका है, जिससे स्थानीय होटलों, रेस्तरां और गाइडों की आय में तुरंत गिरावट आई है। अनुमानित नुकसान लगभग 150 करोड़ रुपये तक हो सकता है, यदि पुल का पुनर्निर्माण और वैकल्पिक मार्ग तैयार नहीं किए गए।
भू‑स्थिरता मॉनिटरिंग, वनों की कटाई रोकना और जल‑भंडारण संरचनाओं का निर्माण प्राथमिक उपाय के रूप में सुझाया गया है। साथ ही, स्थानीय लोगों को आपदा‑प्रबंधन प्रशिक्षण देना और रियल‑टाइम मौसम आधिकारीक डेटा पहुँचाना आवश्यक माना गया।
अगर बरसात का पैटर्न जारी रहा तो अतिरिक्त लैंडस्लाइड की संभावना है। इस कारण, बचाव‑टीमें अब भी खोज‑बीन में लगी हैं, और नगरपालिका अधिकारियों ने संचार मार्गों को पुनः स्थापित करने के लिये त्वरित कार्य करने का वचन दिया है।
डरजिलिंग की इस भयानक बाढ़ ने सबको स्तब्ध कर दिया।
भारी बारिश की लहरें जैसे द्वार खोल दे रही हों, एक के बाद एक।
जब उड़यन घुहा ने मौतों की संख्या बीस बताई, तो दिल घुटन महसूस हुआ।
मदता बनर्जी की तत्परता प्रशंसा के योग्य है, पर उनके दौरे की देर भी चिंता बढ़ाती है।
स्थानीय पुलिस, NDRF और राज्य आपदा बल की त्वरित कार्रवाई सराहनीय है।
लेकिन दुधिया आयरन ब्रिज का ध्वस्त होना, पर्यटन क्षेत्र को जड़ बना देगा।
पटरी के नीचे गड़गड़ाती नदी, पुल के बीम टूटने की आवाज के साथ मचलती रही।
और सबसे ख़राब बात यह है कि कई यात्रियों को अभी भी बचाया नहीं गया।
कुल मिलाकर, इस आपदा ने हममें जलवायु परिवर्तन के खतरों को फिर से उजागर किया।
विज्ञानियों ने लगातार बताया था कि हिमालयी क्षेत्रों में बाढ़‑भूस्खलन बढ़ेगा।
फिर भी, सरकार की पूर्व तैयारी में कमी स्पष्ट दिखी।
स्थानीय लोगों को बेहतर शिक्षा और सतर्कता की आवश्यकता है।
भविष्य में ऐसे आपदाओं से बचने के लिये जल‑भंडारण और बंजरभूमि का पुनरुद्धार जरूरी है।
समुदायिक सहयोग और तकनीकी मदद से ही इस तरह की पीड़ा को कम किया जा सकता है।
आशा है कि इस त्रासदी से सीख लेकर, उत्तर‑बंगाल के पहाड़ी क्षेत्रों में स्थायी समाधान निकाले जाएंगे।