बिहार में इस बार जून की शुरुआत से पहले ही तेज गर्मी ने कहर ढा दिया। 29 से 31 मई 2024 के बीच भीषण हीटवेव का आलम ये था कि राजधानी पटना समेत कई जिलों में तापमान 44 डिग्री सेल्सियस के पास पहुंच गया। दिन में तपती धूप और रात को भी चैन नहीं—IMD पटना ने पहली बार 'हॉट नाइट' अलर्ट जारी किया और बताया कि रात का तापमान भी कई जगह 35-40 डिग्री तक बना रहा। यही वजह है कि लोग न तो दिन में बाहर जा पा रहे थे, न ही रात को राहत मिल रही थी।
इस बेहद मुश्किल हालात के बीच चुनावी सीजन भी था। ऐसे में बाहर ड्यूटी पर लगे कर्मचारियों पर दोहरी मार पड़ी। सबसे दर्दनाक आंकड़ा: चुनाव ड्यूटी पर तैनात 10 पुलिस और चुनाव अधिकारी महज तीन दिनों में जान गंवा बैठे। ऐसे मामले रजिस्टर में दर्ज होते रहे, लेकिन जमीन पर हालात कहीं ज्यादा खराब थे।
बिहार आपदा प्रबंधन विभाग ने सिर्फ 14 लोगों की मौत की पुष्टि की, लेकिन स्थानीय मीडिया रिपोर्ट्स मौजूदा मौतों को लेकर पूरी अलग कहानी बयां कर रही हैं। 30 मई को 55 मौतें रिकॉर्ड हुई, अगले ही दिन 40 से ज्यादा जानें गईं। मतलब, सिर्फ दो दिन में सरकारी रजिस्टर से दोगुना नुकसान। गर्मी से परेशान लोगों को अस्पतालों की ओर भागना पड़ा, लेकिन Anugrah Narayan Magadh Medical College and Hospital (ANMMCH) जैसे बड़े अस्पताल भी दबाव में दिखे। कई जगह एयर कंडीशनर काम नहीं कर रहे थे, मरीजों को पसीने से तर-बतर हालत में ही भर्ती किया गया। मरीजों के परिवार परेशान, अस्पताल स्टाफ भी हालात से जूझता रहा—वहीं दूसरी तरफ विभागीय दावे थे कि अस्पताल पूरी तरह तैयार हैं।
हीटवेव की वजह से बहारिया मजदूर, सड़क किनारे काम करने वाले और रेहड़ी-पटरी वालों की स्थिति और बिगड़ गई। सड़कें दोपहर में वीरान दिखने लगीं और कई इलाकों में बाजार सन्नाटे में डूब गए। महिलाओं और बच्चों में डिहाइड्रेशन और हीट स्ट्रोक के लक्षण आम थे।
राष्ट्रीय स्तर पर भी हालात खतरनाक बने रहे। स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, 1 मार्च से 18 जून के बीच पूरे देश में 110 लोगों की पुष्टि मौत हीटवेव से हुई, जबकि 40,272 लोग हीट स्ट्रोक के शिकार हुए। उत्तर प्रदेश में 36 और ओडिशा में भी दर्जनों जानें गईं। परामर्श जारी हुए, लेकिन असल में बाहर निकलने वाला हर आदमी खतरे में था।
हीटवेव की इस त्रासदी ने सरकारी तैयारियों की असलियत खोल दी है, खासकर जब बात गरमी में काम करने वाले संवेदनशील वर्गों की हो। मौसमी आपदा अब आम आदमी के हिस्से में घड़ी-घड़ी आफत बनकर खड़ी हो रही है, लेकिन राहत के नाम पर सिर्फ कमरों के भीतर बैठकर योजनाएं बनाई जाती हैं।
अरे वाह! फिर से बिहार में हीटवेव ने अपना “कुकरस” बिछा दिया, है ना? अगर आपके पास एसी नहीं है, तो ड्रिंक बॉक्स में बर्फ़ भी ठहर नहीं पाती; सरकार की “पर्याप्त तैयारी” का क्या मतलब है! इस गर्मी में बाहर जाना मतलब धूप में घी का पैन बनना, और चुनाव के काम में लगे लोग तो पहले से ही “बातों” के धुरंधर हो चुके हैं; उनके लिए तो “नया” हीट ब्रीज भी एक खतरनाक मिशन बन गया है। तो फोकस क्या? जनता को बचाना या फिर चुनावी अंक झटकना? हर बार जब मौसम का “ड्रामा” बढ़ता है, तो प्रशासन का “स्क्रिप्ट” वही रहता है - बस कुछ नया जोड़ते रहना।
भाई, थोड़ा सिचुएशन एन्हैंस करने के बजाय, जल संकट को कूलर में ट्रांसफर कर देते तो बेहतर होता।
सरकार बताती है सब ठीक है, पर असली आँकड़े दिखाते हैं कि हेल्थ सिस्टम धुला हुआ है; शायद वे चाहते हैं कि लोग ऐसा सोचें कि हीटवेव सिर्फ एक “मौसम” है, जबकि पीछे छिपी हुई बड़ी साज़िश है।
हीटवेव के सामाजिक-आर्थिक प्रभावों की पड़ताल एक बहु-आयामी प्रणाली विश्लेषण की मांग करती है, जहाँ माइक्रो-लेवल तीव्रता और मैक्रो-लेवल नीतिगत प्रतिक्रियाएं परस्पर क्रियात्मक रूप से अभिस्रित होती हैं। प्रथम वाक्य में, जलवायु-परिवर्तन का वैद्यकीय बफ़र को क्षीण करने का तंत्र स्पष्ट हो जाता है; इससे डिहाइड्रेशन और हिट स्ट्रोक के एपीडेमिक उभार देखे जाते हैं। द्वितीय चरण में, चुनावी परिप्रेक्ष्य को जोड़ते हुए, ड्यूटी पर लगे अधिकारियों का स्ट्रेस-ड्रिवन इंटेंसिटी संरचनात्मक असुरक्षा को बढ़ाता है। यह त्रिकोणीय तनाव-पर्यावरणीय, सामाजिक, राजनैतिक-सभी वर्गीय अभ्यावेदन को एकत्रित करता है। एथनो-इकोनॉमिक फ्रेमवर्क के अंतर्गत, बाहरी श्रमिक और महिला-शिशु समूहों को असमान जोखिम वितरण के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। स्वास्थ्य प्रणाली के भीतर, एसी नहीं चलने वाले वार्ड्स में रोगी की बायोमैकेनिकल होमियोस्टेसिस व्यवधान स्पष्ट रूप से दिखता है। वहीं, प्रशासनिक डेटा वैधता की समस्या, सांख्यिकीय एम्बेडिंग और वास्तविक मेट्रिक के बीच गहरा अंतर दर्शाती है। इस विसंगति को समझाने हेतु, हम फिनॉमेनोलॉजिकल अप्रोच अपनाते हैं, जहाँ “अभियान” शब्द का प्रयोग सामाजिक संधियों के पुनःनिर्माण के रूप में किया जाता है। सामाजिक विज्ञान में, “ड्यूटी” की अवधारणा को पेपरमास्टर कर दिया गया है, जबकि वास्तविकता में यह “हॉट रेज़िलिएंस” को चुनौती देती है। इस प्रयोगात्मक परिदृश्य में, जन-स्वास्थ्य डेटा का “ट्रैजेक्टरी” परिप्रेक्ष्य धुंधला हो जाता है। अंत में, नीति निर्माताओं को चाहिए कि वे “रीसलोशन” नहीं बल्कि “एडैप्टेशन” की रणनीति अपनाएँ। यह केवल एक “रिपोर्ट” नहीं, बल्कि एक सतत “फ़ीडबैक लूप” होना चाहिए। इसके अभाव में, भविष्य की हीटवेवें समान या अधिक गंभीर रूप में प्रकट होंगी, जिससे सामाजिक निहितार्थ तीव्र होते जाएंगे। विश्लेषण के इस समापन में, यह स्पष्ट हो जाता है कि केवल “डेटा” नहीं, बल्कि “डेटा की व्याख्या” ही परिवर्तन की कुंजी है। इस प्रकार, बहु-विषयक संवाद एवं टिंकरिंग प्रक्रिया ही अन्ततः समाधान की दिशा दर्शाएगी। आगे बढ़ते हुए, सार्वजनिक जागरूकता और सामुदायिक सहभागिता को प्राथमिकता देना अनिवार्य है।
बिहार में वर्तमान हीटवेव ने स्वास्थ्य सेवाओं की तत्परता पर गहन प्रश्न उठाए हैं; विशेषकर एसी स्थापित न किए गये वार्ड्स में रोगियों की स्थिति गंभीर हो गई है। चुनावी कार्यकर्ताओं का निरंतर कार्य भी इस अत्यधिक तापीय तनाव को बढ़ाता है, जिससे कार्यभार में अनावश्यक भार उत्पन्न होता है। उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार, केवल सरकारी रिकॉर्ड 14 मौतों को दर्ज करता है, जबकि स्थानीय रिपोर्टिंग से मृत्यु संख्या दोगुनी से अधिक बताई गई है। इस असंगति को स्पष्ट करने हेतु, एक स्वतंत्र निरीक्षण प्रणाली की आवश्यकता है, जिसमें सभी अस्पतालों और दायित्वयुक्त विभागों की विस्तृत रिपोर्ट शामिल हो। साथ ही, जल युक्तीकरण एवं शीतलन उपकरणों की तत्काल उपलब्धता को प्राथमिकता देनी चाहिए, जिससे संवेदनशील वर्गों का संरक्षण संभव हो सके। जनता को समय-समय पर उचित सलाह एवं सुरक्षा दिशानिर्देश प्रदान करना भी अत्यावश्यक है, विशेषकर दिहाड़ी मजदूरों और छोटे उद्यमियों को। इन उपायों को अपनाने से भविष्य में ऐसी आपदाओं के प्रभाव को न्यूनतम किया जा सकता है। अंततः, यह जिम्मेदारी सरकार और नागरिक दोनों की है कि वे सामूहिक रूप से इस संकट का समाधान खोजें।
हम सब मिलकर इस गर्मी को मात दे सकते हैं, चलिए एक साथ पानी की बोतलें बांटते हैं और जरूरतमंदों को ठंडक पहुंचाते हैं! हर छोटी कोशिश बड़ी बदलाव की नींव रखती है, इसलिए हिम्मत रखो। उम्मीद है कि जल्द ही ठंडी हवा का स्वागत करेंगे, और हमारे बाजार फिर से हँसी-खुशी से गूंजेंगे।
वर्तमान पर्यावरणीय द्विआधारी परिदृश्य में, हीटवेव को एक फ़ेनॉमेननल एंटिटी के रूप में वर्गीकृत किया जाना चाहिए। इसके इंटेंसिटी मेट्रिक्स और इनफ्लुएंस फैक्टर्स को पुनः मूल्यांकन आवश्यक है।
आपके द्वारा प्रस्तुत आँकड़े दर्शाते हैं कि सरकारी और मीडिया रिपोर्टिंग में गंभीर अंतर है; इस अंतर को पाटने के लिए एक पारदर्शी डेटा संग्रह प्रणाली आवश्यक है। स्वास्थ्य संस्थानों को आपातकालीन कूलिंग सॉल्यूशन तुरंत लागू करना चाहिए, साथ ही दीर्घकालिक रणनीति के तहत जल संरक्षण और शहरी हरितीकरण को बढ़ावा देना चाहिए। इससे न केवल मौसमी तनाव कम होगा, बल्कि भविष्य में ऐसी घटनाओं के प्रभाव को भी सीमित किया जा सकेगा।
देश की सुरक्षा को देखते हुए, ऐसी अभावग्रस्त स्थितियों में सरकार की लापरवाही बरदाश्त नहीं की जा सकती। हमें तुरंत केंद्रीय सरकार से सख़्त कदमों की मांग करनी चाहिए, जिससे सभी क्षेत्रों में ठंडा माहौल सुनिश्चित हो। यह हमारे राष्ट्रीय हितों के लिए आवश्यक है; देर नहीं करना चाहिए।
सरकारी डेटा पर भरोसा नहीं किया जा सकता। वास्तविक स्थिति को छुपाया जा रहा है। जनता को सतर्क रहना चाहिए।
सामाजिक प्रभावों को समझने के लिए विस्तृत सर्वेक्षण आवश्यक है। विभिन्न वर्गों की आवाज़ को शामिल करना चाहिए। इस तरह ही नीतियाँ प्रभावी बनेंगी।
इस गर्मी में भी ठंड लगती है! 😂
भाईयो और बहनो, ऐसे मुश्किल टाइम में हम सबको एक दुसरे का हाथ बंधना चाहिए। अपने आप को हाइड्रेट रखो और छोटे-बड़े सबको पानी की बोतल दे दो। अगर आप थक गये हों तो थोड़ा आराम लो, लेकिन दायित्व कम मत करो। सरकार से भी अपील है कि वो जल्दी से जल्दी एसी वॉन्टेड हॉस्पिटल्स खोलें। मिल के हम इस हीटवेव को मात देंगे, बस भरोसा रखो।